इंदौर में रमेश मेंदोला लड़ सकते हैं मेयर का चुनाव, भोपाल में कृष्णा गौर या कोई

मेयर के लिए आरक्षण तय होते ही दावेदारों के नाम भी उभरने लगे हैं। इंदौर नगर निगम में ओबीसी महिला की बजाय अब अनारक्षित मेयर होगा। इससे विधायक रमेश मेंदोला के दोनों हाथों में लड्डू आ गए हैं। वे दावा कर सकते हैं कि या तो मंत्री बनाओ या मेयर का टिकट दो। वे इसमें कामयाब हो सकते हैं क्योंकि वे इंदौर में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की पहली पसंद माने जाते हैं। पूरी संभावना है कि वे मेंदोला का नाम आगे बढ़ाएंगे, ऐसे में सीएम शिवराज की यदि हामी रही तो उन्हें महापौर का टिकट मिलना पक्का हो जाएगा। कांग्रेस को भी यहां मौजूदा विधायक को ही उतारना पड़ सकता है। विधायक संजय शुक्ला ने दावेदारी भी कर दी है। कहा है कि हाईकमान चाहेगा तो मेयर चुनाव लड़ूंगा।
भोपाल में अनारक्षित सीट अब ओबीसी महिला हो गई है। इस सीट पर भाजपा के पास विधायक कृष्णा गौर का नाम सबसे ऊपर हो सकता है। भाजपा किसी दूसरे दावेदार को गोविंदपुरा सीट से उपचुनाव लड़ाकर एडजस्ट कर सकती, यहां से कृष्णा गौर विधायक हैं। हिंदुत्व को लेकर पार्टी जिस तरह का रूख अपनाए हुए है, ऐसे में कोई चौंकाने वाला चेहरा भी उतारा जा सकता है। भाजपा ऐसा पहले भी कई बार कर चुकी है।
वैसे भी शहरी वोटर का भाजपा की तरफ ज्यादा झुकाव वाला माना जाता है। यही कारण है कि इंदौर हो या भोपाल यहां लगातार भाजपा का महापौर चुना जा रहा है, जबलपुर और ग्वालियर के हाल भी जुदा नहीं है। इसकी बड़ी वजह सीधे महापौर चुना जाना भी है। अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव (पार्षदों द्वारा मेयर चुनने का) में राजस्थान जैसी जोड़तोड़ और बाड़ाबंदी की आशंका थी इसलिए शिवराज ने कमलनाथ का पूरा प्लान ही उलट दिया।
भोपाल ओबीसी महिला : बड़ा चेहरा नहीं, कृष्णा-विभा पर ही विचार संभव
85 वार्ड के भोपाल नगर निगम में 10 साल से भाजपा का कब्जा है। दोनों पार्टियों के पास कोई बड़ा ओबीसी चेहरा नहीं है। ऐसे में यहां भाजपा अपनी स्ट्रेटेजी के तहत कोई नया चेहरा लाकर वोट बटोरने का प्लान बना रही है। हालांकि विधायक और पूर्व महापौर कृष्णा गौर के नाम पर विचार किया जा सकता है। या फिर कोई नया चेहरा उतारे। इधर, कांग्रेस के पास पूर्व महापौर विभा पटेल से बड़ा महिला ओबीसी चेहरा नहीं है। साथ ही सरकार जाने के बाद पार्टी में छाई निराशा में उसे उम्मीदवार ढूंढ़ना मुश्किल हो सकता है।
इंदौर अनारक्षित : दो विधायक हो सकते हैं महापौर के दावेदार
मालवा की सबसे बड़ी नगर निगम इंदौर में 20 साल से भाजपा का कब्जा है। यहां 85 वार्ड हैं। कांग्रेस के आखिरी महापौर 1995 में मधुकर वर्मा बने थे। 2000 के बाद से भाजपा ने कभी पलटकर नहीं देखा। पिछली बार मालिनी गौड़ मेयर बनीं। अब सीट अनारक्षित हो जाने से बड़े चेहरों को मौका मिलेगा। भाजपा के पास रमेश मेंदोला सबसे बड़ा चेहरा हो सकते हैं क्योंकि वे लगातार बड़े अंतर से विधायक का चुनाव जीते लेकिन मंत्री नहीं बनाया गया। सांवेर उपचुनाव भी वे जिता लाए, ऐसे में पार्टी उन्हें मेयर चुनाव लड़ाकर तोहफा दे सकती है। कांग्रेस के पास चेहरे का संकट है, ऐसे में विधायक संजय शुक्ला का नाम सबसे आगे है।
जबलपुर अनारक्षित : पूर्व मंत्री भनोट के भाई और डॉ. जामेदार बड़े दावेदार
79 वार्डों वाले जबलपुर नगर निगम में भाजपा पिछले तीन चुनाव जीतती आ रही है। कांग्रेस के आखिरी महापौर विश्वनाथ दुबे थे। आरक्षण के बाद कांग्रेस की ओर से पूर्व वित्त मंंत्री तरुण भनोट अपने भाई गौरव के लिए लॉबिंग कर सकते हैं। पूर्व पार्षद संजय राठौर, जगत बहादुर उर्फ अन्नू, नेता प्रतिपक्ष रहे राजेश सोनकर, कांग्रेस के नगराध्यक्ष दिनेश यादव दौड़ में आ गए हैं। भाजपा की तरफ से रेस में सबसे आगे डॉक्टर जितेंद्र जामदार हैं। वे मुख्यमंत्री की नर्मदा संकल्प यात्रा के प्रभारी रह चुके हैं। एमआईसी के पूर्व सदस्य कमलेश अग्रवाल, श्रीराम शुक्ला भी दावेदार हैं।
ग्वालियर सीट पर लगभग पांच दशकों से कांग्रेस महापौर नहीं बना पाई हैं। महापौर पद अनारक्षित होने से सिंधिया की ओर से पूर्व मंत्री मायासिंह पहली पसंद हो सकती हैं। हालांकि प्रभात झा और नरेंद्रसिंह तोमर की ओर से पूर्व महापौर समीक्षा गुप्ता का नाम आगे लाया जा सकता है। इसकी वजह है ग्वालियर की दक्षिण विधानसभा सीट। यहां से झा और तोमर अपने बेटे को MLA का चुनाव लड़ाने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में समीक्षा गुप्ता ही वह किरदार है जिन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़कर तोमर-झा के बेटों की राह का कांटा निकाल दिया। समीक्षा के यहां से निर्दलीय लड़ने से 15 साल से भाजपा विधायक रहे नारायणसिंह कुशवाह हार गए थे। कांग्रेस से सिंधिया के जाने के बाद तेजी से उभरीं रुचिराय ठाकुर, रश्मि पवार दावेदार हैं।
हाल ही में मेयर को पार्षदों के बजाय सीधे जनता से चुनने का फैसला भाजपा का कम, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ज्यादा माना जा रहा है। शिवराज सिंह शहरों की सरकार से अपना कब्जा किसी सूरत में नहीं गंवाना चाहते, यह छुपा नहीं है। वे ‘सीधे’ नगर सरकार चलाने में माहिर माने जाते हैं। उनके कामकाज के लिहाज से परिषद अपनी हो, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि महापौर अपना हो। परिषद की बैठकों में अटकाए जाने वाले प्रस्तावों के लिए उन्होंने पिछली बार ही ‘गली’ निकाल ली थी और महापौर के पॉवर बढ़ा दिए। पांच करोड़ रुपए तक की स्वीकृति का अधिकार अकेले महापौर को दे दिया ताकि पार्षद विरोध करते भी रहें तो भी सरकार के काम न अटकें। मेट्रो, अमृत, सीवरेज सहित तमाम ऐसे प्रोजेक्ट हैं जो शहरों में चल रहे हैं।