गुरूजी की जतरा - भोलाराम और मैं (भाग-35)

राजेश सत्यम का सृजन संसार
तलेन में कर्क रेखा पर स्थित रपट से बहती उगल नदी के निकटतम दो साथियों में से एक है सद्गुरू आश्रम जहाँ आस्था और विश्वास बसते हैं। दूसरा बंगलाशाला, जहाँ 'भोलाराम और मैं' पढ़ते थे। यह दोनों ही जगह हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। यही वह जगह है, जहाँ से भोलाराम और मेरी संभावनाओं के कल्ले फूटे, तथा शरद, मुकेश, पिंटू और अखिलेश ना जाने कितनी बार माने और रूठे। यहीं हम सब साक्षर हुए और यहीं हममें श्रद्धादेवी समाईं।
🚩 नदी के उत्तरी किनारे पर गुरूजी की तपोभूमि 'श्री सद्गुरू आश्रम' है, जहाँ हमारे सभी प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं। और दक्षिणी छोर पर शासन से दक्षिणा लेकर हमसे प्रश्न पूछने वाले, और सही उत्तर न मिलने पर लीली कामड़ी और लकड़ी की स्कैल से पींजने वाले गुरूजियों का वृत्तिस्थल सरकारी स्कूल। जो राजा-राजगढ़ का बंगला होने और उसमें बाद में शाला लगने से बंगलाशाला बनकर त्रिगुणों में से दो गुणों राजस के आधिक्य और तामस के सामीप्य का ही सदा बोध कराता रहा। हाँ कभी-कभी आश्रम से उठकर उगल की सरस, मधुर, शीतल धार छू बंगले तक पहुंचा सतोगुणी हवा का झौंका नैतिक शिक्षा का रूप धर हमें भी सरस्वती शिशु मन्दिर के भैया-बहनों जैसा संस्कारवान और अनुशासित बना जाता था। इन दोनों ही स्थानों से जुड़ी कई ऐसी यादें हैं जो आज भी सिर झुकाए बिना सड़क से गुजरने की इजाजत नहीं देतीं।
🚩 दुनिया की लगभग हर सभ्यता में ही माता-पिता, गुरू और अतिथि को विशेष सम्मान प्राप्त है। लेकिन इन चारों का पूरी दुनिया से ज्यादा जोर भारत में चलता है। क्योंकि अपने यहाँ इन्हें देवता माना जाता है। और कभी-कभी तो भगवान भी। ऐसी ही मान्यता अनंत ब्रह्मलीन सद्गुरूदेव विश्वंभरनाथ जी व्यास 'गुरूजी' से भी जुड़ी हुई है। जिसके चलते पिछ्ले 45 सालों से प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर गुरूजी की स्मृति में आयोजित जतरा में तलेन तथा आसपास के शताधिक गांवों से श्रद्धा का सैलाब उमड़ता आ रहा है। कोई करम अभागा ही होगा, जिसके पाँव इस दिन आश्रम की ओर न मुड़ें। जीते जी दंतकथा बन चुके गुरूजी जब दुनिया छोड़कर गए तब मेरी उम्र दो बरस थी, लेकिन इतनी कम आयु में ही मुझे उनका बहुत स्नेह, आशीर्वाद प्राप्त हुआ और गोद का सशक्त आधार भी। यह समझ लीजिये कि मेरा जीवन तो उन्हीं की कृपा से है। कैसे? इसकी चर्चा कभी बाद में करेंगे।
🚩'भोलाराम और मैं' बचपन से ही पूरे साल गुरूजी की जतरा का इंतजार करते आए हैं। कारण यह है कि चूल्हा-घट्टी-गुल्लक, खारिया-भजिया-जलेबी, सीटी-बंसी-बिल्लौरी काँच से लेकर चकडोलर-बायस्कोप और सिनेमा वाली मशीन सब कुछ तो आता था इस जतरा में। अब तो मोबाइल पर पसंद करो और अमेजोन या फ्लिपकार्ट पर सुर्खाब के पर, गधे के सींग या फिर साँप के पाँव कुछ भी घर बैठे मंगालो, लेकिन उस समय तो मामूली चीजें सस्ते में खरीदने के लिए जतरा और मेले ही ठीक थे।
🚩 गुरूजी भले ही सुठालिया के निवासी रहे हों, लेकिन उन पर अधिकार तो तलेन का ही है। इसी अधिकार से तो हम कहते हैं कि तलेन गुरूजी का ही गाँव है। लगभग हर सनातनी घर, प्रतिष्ठान, संस्था, संस्थान और मंदिर में लगी उनकी तस्वीर आज भी आपकी आँखों में आँखें गड़ाती और चाहे जहाँ खड़े होकर देखें आपकी ओर देखती ही दीखती है। गुरूजी का सारा जीवन सुठालिया, शुजालपुर और तलेन में ही बीता। गुरूजी सुठालिया से तलेन आए थे और कुछ समय शुजालपुर में भी रहे थे। जी हाँ यह वही सुठालिया-शुजालपुर हैं, जिनके बीच अंग्रेजों के जमाने से 'दि पीपुल्स ट्रांसपोर्ट कम्पनी' की बस 'पीटी' कुछ साल पहले तक चलती आई थी। जी हाँ, वही बस, जिसके टिकिट मेरे पिताजी बाँटते थे।
🚩 सर्वाधिक चर्चित चमत्कारी पारस पत्थर भी लोहे को बस सोना ही बना पाता है, ना कि पारस। लेकिन गुरूजी का प्रभाव तो उससे भी बहुत ज्यादा प्रभावशाली है। अब इस तथ्य के बारे में आप क्या कहेंगे कि उनके आले-दोले मंडराते-मंडराते कई लोग तो खुद भी 'गुरू' हो गए। उदाहरण की शुरूआत अपने घर से ही करूँ! मेरे स्वर्गीय पिताश्री बेनी गुरू और काकाश्री जानकीवल्लभ गुरू गुरूजी की सेवा करते-करते चेले के पद से पदोन्नत होकर सीधे गुरूपद को प्राप्त हो गए। उनके अलावा सत्यनारायण गुरू और रामचंदर गुरू के भी नाम उल्लेखनीय हैं। खैर ये सब तो ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर वैसे भी गुरू कहलाए जा सकते थे। पर गुरूजी की महिमा का प्रताप देखिये- कि उनकी समदर्शी-भाव प्रवाहिका पतित पावनी, कल्मष हारिणी, भवभय तारिणी स्नेह गंगा की…