विरोध का अधिकार लेकिन अपमान की अनुमति भी नहीं

दिव्य चिंतन
-हरीश मिश्र-
गुना कलेक्टर ज्ञापन लेने बाहर नहीं आए, यह बात प्रदर्शन कर रहे अधिवक्ताओं को नागवार गुज़री। स्वर तेज़ हुए, नारे लगे, प्रदर्शन हुआ—नाराज़गी स्वाभाविक थी। लेकिन विरोध उस समय विकृति में बदल गया, जब एक कुत्ते के गले में "कलेक्टर गुना" नाम की पर्ची टांग दी गई।
विरोध का अधिकार सभी को है — अधिवक्ताओं को भी। किंतु जब विरोध की भाषा मर्यादा की रेखा लांघने लगे, तो सत्य भी शोर में दब जाता है।
संविधान ने हमें असहमति और प्रतिवाद का अधिकार दिया है, परंतु उसके साथ व्यवहार की गरिमा बनाए रखने का उत्तरदायित्व भी सौंपा है। यदि अधिकारी संवाद से बचते हैं, तो उनकी आलोचना की जानी चाहिए — किंतु प्रतीकों को पशुता से जोड़कर नहीं, बल्कि संवैधानिक चेतना और नैतिक विवेक से।
याद रखिए — जब विरोध अपमान में बदलता है, तो सत्ता को संबल मिलता है और आंदोलन अपनी नैतिक भूमिका खो देता है। विरोध की वास्तविक शक्ति उसकी शालीनता और गरिमा में निहित होती है।
लेखक ( स्वतंत्र पत्रकार )