हरीश मिश्र 

पिछले कुछ सालों में भारत की विदेश नीति सशक्त हुई है। कभी सीमा पर सख्ती दिखाई गई, तो कभी व्यापार मंचों पर सहयोग बढ़ाया गया।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की हालिया यात्राओं से साफ हो गया है कि भारत अब दक्षिण-दक्षिण सहयोग को मजबूती से आगे बढ़ाना चाहता है और वह भी केवल दस्तावेज़ों में नहीं, बल्कि ठोस योजना बनाई के ज़रिए।

ब्राजील में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भाग लेने से पहले प्रधानमंत्री ने घाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, और अर्जेंटीना की यात्रा की। इन दौरों में सिर्फ औपचारिक मुलाकातें नहीं हुईं, बल्कि भारत की सोच-समझकर बनाई गई रणनीति पर काम हुआ। बातचीत के मुख्य विषय थे — दवाएं, डिजिटल तकनीक, खाद्य सुरक्षा और ज़रूरी खनिज ।

त्रिनिदाद के पोर्ट ऑफ स्पेन में “भारतीय फार्माकोपिया” पर समझौता हुआ, और घाना की राजधानी आकरा में वैक्सीन हब की स्थापना पर चर्चा हुई। ये सब इस बात के संकेत हैं कि भारत अब स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है।

इन यात्राओं से यह भी साफ है कि भारत अब सिर्फ आत्मनिर्भर देश बनना नहीं चाहता, बल्कि दुनिया के साथ मिलकर आगे बढ़ना चाहता है। जब अर्जेंटीना में क्रिटिकल मिनरल्स पर समझौता हुआ, तो यह सिर्फ व्यापार नहीं था, बल्कि भविष्य में ऊर्जा की ज़रूरतों को सुरक्षित करने की एक अहम कोशिश थी।

इनमें सबसे भावुक पल तब आया जब प्रधानमंत्री ने त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करते हुए कहा "दुनिया को भारत पर गर्व हैं।” यह सिर्फ एक भावनात्मक बात नहीं थी, बल्कि संकेत था कि भारत अब प्रवासियों को भी अपनी विदेश नीति का हिस्सा बना रहा है।

इस पूरी यात्रा का एक सीधा संदेश है — भारत अब अकेले चलने की नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलने की नीति अपना रहा है। और यही आज की नई भारतीय विदेश नीति की असली पहचान है।

लेखक ( स्वतंत्र पत्रकार )
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