भोपाल l पौराणिक कथा के अनुसार कुंभ मेला हर 12 साल में प्रथक रूप से प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित होता है, कुंभ मेले का हमारे समाज में बहुत महत्व रहा है, इसका इतिहास सदियों पुराना है, पौराणिक कथा के अनुसार देवता और राक्षस दोनों में ही अहंकार की प्रवत्ति होती है, भले असुर को भोग की वृत्ति हो या देवों को सत्य की प्राप्ति का अहं, जहां अहंकार है वहां मृत्यु का भय अवश्य ही रहेगा I इसी भय के चलते देवता और राक्षस संधि करते हैं और समुद्र मंथन से अमृत्व ( अमरता ) प्राप्ति के लिये एकत्रित होते हैं I 

समुद्रमंथन याने आत्ममंथन

वेदांत के अर्थ मे समुद्र मंथन का अर्थ है अपने अंदर के भवसागर में मंथन करने से है , मृत्यु का भय तो तभी जा सकता है जब आप स्वयं को जानें, खुद को जानें , अपने बोध को जागृत करें , आत्मअवलोकन करें , पौराणिक कथा के अनुसार जब देवता और दानव समुद्र में मंथन करते हैं तो पहले हलाहल निकलता है तो देवों के देव महादेव आत्ममंथन से निकले विष को पी लेते हैं I इसका सांकेतिक अर्थ है कि जब आप आत्मज्ञान की प्राप्ति का प्रयास करते हैं तो पहले आपके अंदर घुला हुआ जहर याने संसारिक अज्ञानता पहले बाहर निकलती है, इस जहर निकलने की प्रक्रिया से घबराकर कर कहीं आप इस आत्मज्ञान की आध्यात्मिक प्रक्रिया को रोक ना दें, तो पौराणिक कथा सांकेतिक रूप से बताती है इसके लिये देवों के देव आपके साथ खड़े हैं आपका विष निगलने के लिये और आपकी मुक्ति के लिये ! 

मनुष्य की कामनाएं और आत्ममंथन

हलाहल् निकालने के बाद देवों के देव महादेव की कृपा से असुर और देवता समुद्र मंथन की प्रक्रिया को जारी रखते हैं, तो समुद्र से हीरे मोती , कल्पवृक्ष, देवियां , कामधेनु आदि प्रकट होते हैं, ये प्रतीक है कि विष निकलने के बाद भी अगर आप निरंतर आत्ममंथन की प्रक्रिया जारी रखते हैं तो आत्ममंथन की प्रक्रिया को विचलित करने के लिये ये सब चीजें जो आदमी की कामनाओं की प्रतीक हैं वो प्रकट होती हैं, जो मनुष्य को आंतरिक ज्ञान से दूर करती हैं I मनुष्य की कामनाओं को कितने सुंदर तरीके से पौराणिक कथा में बताया गया है कि यही वे चीजें हैं जिसके कारण मनुष्य आत्मअवलोकन से वंचित रहता है और अज्ञानता में अनेकों दुख पाता है I इसके बाद भी देवता और असुर कामनाओं से विचलित नहीं होते हैं और समुद्र मंथन निरंतर करते रहते हैं तो फिर समुद्र से एक कुंभ निकलता है जिसमें अमृत होता है I कुंभ प्रतीक है सत्य का, आत्मा का I कुंभ प्रतीक है उस बिंदु का जिसके लिये हम सब पैदा होते हैं I

कुंभ का मतलब हमारे जीवन में मुक्ति का प्रकाशित होना

ना तो हमारा जन्म विष पीते रहने के लिये हुआ है ना हमारा जन्म कामनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं में उलझने के लिये हुआ है , हमारा जन्म हुआ है अमृत तक पहुंचने के लिये I कुंभ का मतलब है प्रकृति से परे हो जाना, प्रकृति के साक्षी हो जाना I उपनिषद जब कहते हैं तमसो मा ज्योतिर्गमय , वो इसी कुंभ के प्रकाश की बात कर रहे हैं, उपनिषद विद्वानों के लिये हैं, पुराणों में इन्ही बातों को आमजन को सरलता से बताने की कोशिश की गयी है I गड़बड़ ये हुई है कि आम जनता पुराणों में ही अटक कर रह गयी, होना तो ये चाहिए था कि पुराणों का अर्थ उपनिषद से किया जाता लेकिन हुआ उल्टा , ऐसे समझिये कि श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भागवतपुराण का अर्थ करना है या भागवतपुराण के अनुसार श्रीमद्भगवद्गीता का , आम जनता ने भागवतपुराण के अनुसार गीता का अर्थ किया, यही भारी गलती हुई है और भारत की दुर्दशा का ये मूल कारण है I

भगवान का प्रकट होना याने उच्चतम सत्य का प्रकट होना 

कुंभ निकलने के पश्चात जयंत कुंभ को ले के भागता है लेकिन पकड़ा जाता है, उसके बाद देवताओं और दानव में लडाई शुरू हो जाती है , तो फिर भगवान प्रकट होते हैं, भगवान प्रतीक हैं उच्चतम सत्य के जो नित्य हैं, जो बदल नहीं सकता, भगवान देखते हैं दानवों से तो देवता हार जायेंगे तो भगवान माया बनकर याने मोहिनी बनकर, मोहिनी याने मोह याने भ्रम बनकर , दानवों को अपने मोहपाश में जकड़ लेते हैं , इस बीच देवता अमृत पीने का प्रयास करने लगते हैं, लेकिन दानवों के खेमे से एक दानव को शक हो जाता है और वो देवता के भेष में आ के अमृत पी लेता है और अमर हो जाता है I देवता उसको अमृत पीते देख लेते हैं और पहचान लेते हैं तो हंगामा हो जाता है , दानव भागने लगता है तो उसके पीछे असुर और देवता दोनो भागते हैं , भागते - भागते दानव के हाथ कांपने लगते हैं तो कुंभ से अमृत छलक कर उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयागराज में नदियों के किनारे गिरता है, तो मान्यता है कि कुंभ मेले के दौरान जिन नदियों में अमृत छलका था वहां डुबकी लगाने से अमरता की प्राप्ति होती है और सारे पाप धुल जाते हैं I

अहंकार से मुक्ति तक की यात्रा है कुंभ

इस पूरे कुंभ की कथा अहंकार की प्रकृति , अहंकार की नियति याने मुक्ति की जो प्रक्रिया है उसके बारे में है , आदमी की प्रकृति है कि वो फंसे रहना चाहता है, जैसे जानवर पैदा होता, खाता है पीता है, बच्चे पैदा करता है और मर जाता है , इंसान भी तो यही करता है, पैदा होता, खाता है पीता है, भोगता है, संतानें पैदा करता है और मर जाता है I इंसान अपनी नियति तक नहीं पहुँच पाता , नियति माने तुम जीते जी मृत्यु के पार निकल जाओ I कुम्भ की कथा इसलिए है कि मनुष्य के जीवन में अमृत उतर पाये I

नदियाँ हमारी माता हैं और हमारी माता अस्वस्थ हो ये तो संतानों को शोभा नहीं देता 

वर्तमान परिपेक्ष्य में हमारी नदियों की हालत बहुत खराब है, उनका सम्मान करना पड़ेगा, उन पर दया करने की आवश्यकता है, क्लाइमेट चेंज हो , इंडस्ट्रियल वेस्ट हो , मानवीय कचरा हो, हमारी नदियाँ बहुत दुर्दशा में हैं , धार्मिक कारणों से या किसी अन्य कारणों से हमारी नदियों की हालत और बदतर हो ये ठीक नहीं है, नदियाँ हमारी माता हैं और हमारी माता अस्वस्थ हो ये तो संतानों को शोभा नहीं देता है, तो होना ये चाहिए कि सांकेतिक रूप से कुछ छींटे अपने शरीर पर छिड़क ले , हमेँ अपने नदियों से सारोकर रखना होगा और धर्म के वास्तविक अर्थ को समझना होगा I 

राजेन्द्र सोनी, भोपाल