दिव्य चिंतन 

चबूतरे से प्रशासन तक : उम्मीद का 'अरुणोदय'

हरीश मिश्र 

जब कोई प्रशासनिक अधिकारी चबूतरे पर बैठकर जनसामान्य से संवाद करता है, तो वह केवल एक औपचारिक निरीक्षण नहीं करता — वह उस भरोसा का निर्माण करता है, जो शासन और जनजीवन को आपस में जोड़ता है। यह संवाद, विश्वास की नींव पर टिका एक सशक्त संकेत है कि प्रशासन अब 'फाइलों से फ़ील्ड' की ओर अग्रसर है।

   कलेक्टर अरुण कुमार विश्वकर्मा द्वारा सांची जनपद के ग्रामों—माखनी, पगनेश्वर, ढकना चपना, गुलगांव—का भ्रमण और वहाँ समग्र ई-केवाईसी तथा पीडीएस प्रणाली की निगरानी एक प्रशासनिक दायित्व मात्र नहीं था, बल्कि यह ग्रामीणों के जीवन में "उम्मीद का अरुणोदय" सिद्ध हो सकता है। यह वही क्षण होता है जब योजनाएँ काग़ज़ों से उतरकर ज़मीन पर मुस्कान बन जाती हैं।

   आज जब ई-गवर्नेंस पारदर्शिता का पर्याय बन चुका है, तब भी मानव-संवाद की आवश्यकता बनी हुई है। आँकड़े योजनाओं की संरचना बता सकते हैं, पर उनके प्रभाव को केवल वही महसूस कर सकता है जो नल से बहते पानी की धार या राशन की थैली में समय पर मिले अनाज की गरिमा जानता है।

कलेक्टर द्वारा अधिकारियों को कार्य में गति लाने हेतु दिए गए निर्देश निस्संदेह प्रशंसनीय हैं, परंतु यह भी उतना ही आवश्यक है कि प्रत्येक पात्र हितग्राही तक योजनाओं का लाभ पूरी निष्पक्षता और संवेदनशीलता के साथ पहुँचे।

   रायसेन प्रशासन की यह पहल दर्शाती है कि जब शासन खुद चलकर जनपथ पर आता है, तो व्यवस्था में न केवल गति आती है, बल्कि संवेदना भी। यह प्रयास यदि सतत बना रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब देश के हर गाँव में "उम्मीद का अरुणोदय" होगा — और शासन जनता का निकटतम साथी बन जाएगा।