सख्त टिप्पणी - अदालत आंखे मूंदकर नहीं बैठ सकती ...

*"ममता" हुई तार-तार ...*
कहीं मंदिर जला, कहीं मस्जिद टूटी,
बंगाल में माँ की गोद सूनी छूटी।
धरती का दामन लहूलुहान है,
इंसानियत आज बेज़ुबान है।
दिव्य चिंतन
*बंगाल में उपद्रव की आग क्यों भड़क रही है ?*
हरीश मिश्र
पश्चिम बंगाल एक बार फिर हिंसा की आग में झुलस रहा है—रेलवे ट्रैक पर प्रदर्शन, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान, हिंदू पिता-पुत्र की चाकू से हत्या, मंदिरों और दुकानों पर हमले, और जगह-जगह सड़कों पर उग्र भीड़। सवाल उठता है कि आखिर यह हालात क्यों और कैसे बने? क्या हिंसा को मौन राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है? क्या वोट बैंक की राजनीति ने कानून व्यवस्था को बंधक बना लिया है?
इन हालातों के बीच कलकत्ता उच्च न्यायालय को सख्त टिप्पणी करनी पड़ी कि "अदालत आंखें मूंदकर नहीं बैठ सकती।" इसके बाद मुर्शिदाबाद के हिंसाग्रस्त इलाकों में केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश दिया गया। बीएसएफ के 300 जवानों के साथ-साथ केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल की 5 कंपनियां भी लगाई गईं। सवाल यह है कि एक लोकतांत्रिक राज्य में ऐसी नौबत क्यों आई?
राज्यपाल सीवी आनंद बोस को सार्वजनिक रूप से चेतावनी देनी पड़ी कि कानून हाथ में लेने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। पर यह चेतावनी क्या पर्याप्त है?
संवैधानिक प्रावधान और टकराव
विवाद की जड़ में वक्फ संशोधन कानून है, जो केंद्र द्वारा पारित किया गया है और समवर्ती सूची में आता है। संविधान का अनुच्छेद 254 स्पष्ट करता है कि यदि किसी विषय पर केंद्र और राज्य के कानूनों में टकराव हो, तो केंद्र का कानून ही प्रभावी माना जाएगा। फिर भी बंगाल सरकार इस कानून को खारिज करने की मुद्रा में क्यों है?
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले भी केंद्र की योजनाओं, जैसे ‘आयुष्मान भारत’, को राज्य में लागू नहीं होने दिया। यह संघीय ढांचे की व्याख्या का मसला है, लेकिन राजनीतिक विरोध की आड़ में संवैधानिक दायित्वों की अनदेखी की है।
वक्फ कानून से जुड़ी 20 याचिकाओं पर 16 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होनी है। यह स्पष्ट रूप से एक कानूनी मुद्दा है, लेकिन इसे मजहबी रंग क्यों दिया जा रहा है? प्रदर्शनकारियों के गालियां भरे भाषण, ‘कुत्ता’, ‘गद्दार’, ‘हरामखोर’ जैसे शब्द, क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आते हैं या यह कानून की अवमानना है?
तृणमूल सरकार के मंत्री सिद्दिकुल्ला चौधरी का यह बयान कि "राज्य की 50 जगहों पर दस-दस हजार लोगों की भीड़ जमा की जाए", क्या यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं में आता है? क्या यह संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती नहीं है?
2026 के विधानसभा चुनावों की आहट है, और बंगाल में सियासी सरगर्मी बढ़ती जा रही है। ममता बनर्जी तुष्टिकरण की राह पर चलती दिख रही हैं, तो भाजपा सांप्रदायिक विभाजन की धार तेज करने में जुटी है। इस सबके बीच आम नागरिक फंसा है, जिसे शायद वक्फ का मतलब तक नहीं पता।
हिंसा, आगजनी और सड़कों पर खून बहाने से न तो संविधान बदलने वाला है, न कानून की व्याख्या। कानून का अंतिम फैसला सर्वोच्च न्यायालय को करना है। लोकतंत्र में आंदोलन का हक है, लेकिन हिंसा की छूट नहीं। बंगाल को अब यह तय करना होगा कि वह संवैधानिक मर्यादा के साथ चलेगा या सड़कों की राजनीति को ही अपनी पहचान बना लेगा।