पांढुर्णा l पर्यावरण संरक्षण और सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस, जी.एच. रायसोनी विश्वविद्यालय, सायखेड़ा (म.प्र.) तथा कृषि अभियांत्रिकी विभाग, छिंदवाड़ा के संयुक्त तत्वावधान में फसल अवशेष (पराली) जलाने के प्रति जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य छात्रों, किसानों और आमजन को पराली जलाने से होने वाले दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक करना तथा इसके वैकल्पिक समाधान सुझाना था। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ. केविन गवळी, अधिष्ठाता, स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस ने किया। अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने स्थायी कृषि पद्धतियों को अपनाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि यह न केवल पर्यावरण की रक्षा करता है, बल्कि किसानों को दीर्घकालिक लाभ भी प्रदान करता है।

मुख्य अतिथि इंजी. समीर पटेल, सहायक अभियंता, कृषि अभियांत्रिकी विभाग, मध्य प्रदेश ने पराली जलाने से उत्पन्न वायु प्रदूषण, स्वास्थ्य समस्याएं एवं भूमि की उर्वरता में गिरावट जैसे गंभीर प्रभावों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कम्पोस्टिंग, बायो-डिकंपोजर का उपयोग और यंत्रीकृत अवशेष प्रबंधन जैसे वैकल्पिक उपायों की जानकारी भी साझा की।

छात्रों द्वारा जागरूकता फैलाने के लिए पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया, जिसे प्रतिभागियों ने सराहा। कार्यक्रम के अंत में सभी प्रतिभागियों ने पराली न जलाने और अपने क्षेत्रों में इस विषय पर जागरूकता फैलाने की शपथ ली।

कार्यक्रम समन्वयक इंजी. राकेश कुमार तुरकर ने कहा, “युवाओं को हरित कृषि के पक्षधर बनकर भविष्य की दिशा तय करनी होगी। यह कार्यक्रम उसी दिशा में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम है।”
डॉ. चेतन बोंदरे ने फसल अवशेष जलाने से मिट्टी की उर्वरता में कमी, वायु प्रदूषण और लाभकारी कीटों के विनाश के वैज्ञानिक पक्ष पर प्रकाश डाला।

समापन अवसर पर डॉ. परेश बाविस्कर, आईआईसी समन्वयक ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस, जी.एच. रायसोनी विश्वविद्यालय आने वाले समय में ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता अभियान और कृषि संस्थानों के साथ सहयोगात्मक प्रयासों को निरंतर जारी रखेगा।