बालाघाट l कृषि विज्ञान केन्द्र बड़गांव में मंगलवार से प्रारंभ हुये दो दिवसीय प्रशिक्षण का बुधवार को समापन हुआ। इस दो दिवसीय प्रशिक्षण में पहले दिन तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक को बढ़ावा देने और धान के साथ अन्‍य फसलों को बढ़ावा देने के लिये आयोजित हुआ। इस प्रशिक्षण में स्‍थानीय कृषि कार्यालय के फील्‍ड के अधिकारी व कर्मचारी के अलावा जबलपुर के अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (तिल एवं रामतिल) के तत्वाधान में कृषि विज्ञान केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. आर.एल. राऊत के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण दिया गया। पहले दिन प्रशिक्षण में अखिल भारतीय परियोजना समन्‍वयक जबलपुर के डॉ. आनंद कुमार विश्‍वकर्मा ने कहा कि खरीफ मौसम में तिलहनी फसलों के अंतर्गत तिल की खेती का महत्वपूर्ण स्थान हैं। तिल में कैल्शियम, डाइटरी प्रोटीन और एमिनो एसिड होते हैं। जो हड्डियों के विकास को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। यह न सिर्फ आपकी हड्डियों को मजबूत बनाने का काम करते हैं। साथ ही यह आपकी मांसपेशियों के लिए भी फायदेमंद होते हैं। तिल की अच्छी उत्पादन के लिये अच्छी गुणवत्ता वाली बीजों को उपयोग करना चाहियें। फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाओं यथा फूल आते समय एवं फल्लियों में दाना भरने के समय सिंचाई करे। वैज्ञानिक डॉ. आनन्द पाण्डे  ने तिल की विभिन्न बीमारियों पर चर्चा करते हुये उन्‍होंने जड़ एवं तना सड़न, भभूतिया रोग के लक्षण एवं नियंत्रण निवारण के उपाय भी बतायें।

केवीके के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. आरएल. राऊत ने प्रशिक्षित करते हुये कहा कि देश में हम दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गये हैं किन्तु तिलहन में हमारा उत्पादन बहुत कम हैं। इसलिये तिलहन (तेल उत्पादन) में आत्मनिर्भर होने के लिये हमे तेल वाली फसलों पर जोर देना होगा। प्रत्येक किसान को कम से कम अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु तिलहन फसलों का उत्पादन करना होगा। वरिष्‍ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ. नम्रता जैन ने कहा कि तिल की बुआई जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक करनी चाहिए। बीज को कार्बेण्डाजीम 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करते हुये बुआई कतार से कतार 30 सेमी. तथा पौधा से पौधा की दूरी 10 से.मी. रखते हुए 3 से.मी. तक गहराई पर बुआई करना चाहिये। तिल की पौधो की फलियाँ पीली पडने की अवस्था में एवं पत्तियाँ झड़ना प्रारम्भ हो जाये तब किसान भाई फसल परिपक्व हो गयी समझ सकते हैं। कटाई करने उपरान्त फसल के गट्ठे बाधकर खेत में अथवा खालिहान में खडे रख सकते हैं। 8 से 10 दिन तक सुखाने के बाद लकड़ी के ड़न्डो से पीटकर तिरपाल पर झड़ाई करे। झडाई करने के बाद सूपा से फटक कर बीज को साफ करें तथा धूप में अच्छी तरह सूखा ले। बीजों में जब 8 प्रतिशत नमी हो तब भंडार पात्रों में भंडारित करना सुनिश्चित करें। पहले दिन प्रशिक्षण में कृषि उपसंचालक श्री राजेश खोबरागढ़े, कृषि महाविद्यालय के सहायक प्राध्‍यापक डॉ. अतुल श्रीवास्‍तव, डॉ. रमेश अमूले ने भी प्रशिक्षित किया।

                                  धान के साथ अन्य फसलों को दे बढ़ावा – कृषि 

विज्ञान केंद्र

दूसरे दिन बुधवार को केवीके बड़गांव और जिले में फसल विविधिकरण को बढ़ावा देने के लिये कृषि प्रणाली अनुसंधान परियोजना जेएनकेवी जबलपुर के तत्वाधान में कृषि अधिकारियों के लिये दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन केन्द्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. आरएल राऊत के मार्गदर्शन में किया गया हैं। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान मोदीपुरम मेरठ के द्वारा प्रायोजित किया गया। दूसरे दिन डॉ. आनन्द कुमार विश्वकर्मा ने कहा कि जिले के ग्रामीण विस्तार अधिकारियों को अपने क्षेत्र की आवश्यकता के अनुसार फसलों के चयन की आवश्यकता है। दूसरी फसलों के उत्पादन के बारे में विस्तार से चर्चा की आपने बताया कि कैसे किसान फसल चक्र अपनाकर अधिक आय प्राप्त कर सकता साथ ही भूमि की उर्वराशक्ति को कैसे बढ़ा सकता हैं। फसल विविधिकरण परियोजना की संयोजिका कृषि महाविद्यालय जबलपुर की डॉ. नम्रता जैन परियोजना के उद्देश्य एवं कार्यक्रम के बारे में पूरी जानकारी साझा की एवं किसानों से फसल विविधिकरण के स्थानीय स्तर पर विकल्पों की चर्चा की एवं परियोजना द्वारा मृदा स्वास्थ्य तथा कृषि आय में होने वाले सकारात्मक बदलाव के बारे में जानकारी दी। परियोजना के कृषकों को लगातार 4 वर्षों तक परियोजना के माध्यम से फसल उत्पादन की उन्नत तकनीकों का प्रदर्शन किसानों के खेतों पर किया जायेगा जिसका लाभ बालाघाट जिले के किसानों को मिलेगा एवं फसल विविधिकरण की दिशा में यह कार्य जिले में मील का पत्थर साबित होगा। उपसंचालक कृषि श्री राजेश खोबरागढ़े, केवीके के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख डॉ. आर.एल. राऊत, कृषि महाविद्यालय बालाघाट के सहायक प्राध्यापक डॉ. अतुल श्रीवास्तव, परियोजना संचालक आत्मा अर्चना डोंगरे केन्द्र के वैज्ञानिक डॉ. एस.आर. धुवारे, डॉ. रमेश अमूले ने भी सम्‍बोधित किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. रमेश अमूले द्वारा किया गया हैं। कार्यक्रम में श्री धर्मेन्द्र आगाशे, कु. अंजना गुप्ता, श्रीमति अन्नपूर्णा शर्मा एवं दिलीप कुमार शिव ने विशेष सहयोग प्रदान किया।