अलसी के माध्यम से प्राकृतिक रेशों का उत्पादन

सागर l अलसी न केवल अद्वितीय तिलहनी फसल है, बल्कि यह उत्कृष्ट प्राकृतिक रेशा भी प्रदान करती है। आज हम बात कर रहे कि कैसे भारतीय वैज्ञानिकों ने 10 वर्षों के कठिन परिश्रम से अलसी की एक नई प्रजाति विकसित की है, जो किसानों के लिए आर्थिक विकास का एक नया द्वार खोल सकती है।
भारत में प्राकृतिक रेशों की मांग और आपूर्ति में एक बड़ा अंतर है। अधिकांश प्रक्रियाओं में प्राकृतिक रेशों का उपयोग महंगा होता है और इसके लिए हमें चीन, फ्रांस, रूस और यूक्रेन जैसे देशों से आयात करना पड़ता है। इस समस्या को हल करने के लिए जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र, सागर में शोधकर्ताओं ने अलसी की नई प्रजाति एसएलएस 142 तैयार की है, जो लगभग 13-15 बीज और 10-12 क्विंटल प्राकृतिक रेशा उत्पादन कर सकती है।
डॉ. देवेंद्र पयासी, परियोजना प्रभारी, बताते हैं कि अलसी का हर भाग मूल्य वर्धित उत्पादों के निर्माण के लिए उपयोग किया जा सकता है। अलसी के बीज ओमेगा-3, लिग्निन, फाइबर, और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होते हैं। वहीं, इसके तने की बाहरी कोशिकाओं से निकला रेशा, जिसे एलिनिन कहते हैं, टेक्सटाइल उद्योग में अन्य रेशों के साथ मिलाकर कपड़ा बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।
इस नई प्रजाति के आने से, अलसी उत्पादक किसानों को प्रति हेक्टेयर करीब 1 लाख रुपये की शुद्ध आय के साथ-साथ बीजों की बिक्री का लाभ भी मिल सकता है। यह न केवल किसानों की आय में वृद्धि करेगा, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी मदद करेगा।
अलसी के छोटे तंतु का उपयोग पैराशूट की रस्सी, दरी, चादर, पर्दे, और उच्च गुणवत्ता वाले बांड पेपर, ग्रीटिंग एवं पेंटिंग पेपर, कैनवास, सिगरेट, और करेंसी पेपर बनाने में भी किया जाता है। इस प्रकार, अलसी केवल एक फसल नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण उद्योग का आधार बन सकती है।