दिव्य चिंतन - न्याय का धर्म और अन्याय का विरोध

(हरीश मिश्र) कुछ लोग न्याय और अन्याय के मुद्दों पर प्रतिक्रिया अपनी सहूलियत या लाभ-हानि के आधार पर देते हैं, जो न्याय की सच्ची भावना के विपरीत है। ईमानदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अन्याय का विरोध ईमानदारी और निष्ठा से करे। किसी भी प्रकार का जुल्म, चाहे वह किसी भी धर्म, पंथ, या मज़हब के खिलाफ हो, उसका विरोध करना हर इंसान का नैतिक दायित्व है।

यह धारणा कि न्याय केवल अपने समुदाय तक सीमित रह सकता है, गलत है। सच्चा धर्माचरण यही है कि हर अन्याय का विरोध किया जाए, चाहे वह कहीं भी हो।

बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्म पर चुप्पी साधना उनकी पीड़ा को अनदेखा करने के समान है। यह चुप्पी दिखाती है कि हम अभी भी  भाईचारे की भावना को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाए हैं।

हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और देखना चाहिए कि कहीं हम अपनी सुविधा, स्वार्थ, या पहचान के आधार पर न्याय और अन्याय का मूल्यांकन तो नहीं कर रहे। जब तक हम सामुदायिक पहचान से ऊपर उठकर अन्याय के खिलाफ सामूहिक रूप से आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक समाज में कोई सकारात्मक परिवर्तन संभव नहीं है।

न्याय और अन्याय का मूल्यांकन निष्पक्षता और मानवीय दृष्टिकोण से करना ही सच्चे धर्म का पालन है।