औषधीय गुणों से भरपूर है तिलहन फसल अरंडी- केस्टर की खेती किसानो के लिए लाभकारी- वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ.सी.पी.पचौरी

अरंडी, केस्टर जिसका वानस्पतिक नाम रिसिनस कम्युनिस एक बहुमुल्य औषधीय गुणों वाली तिलहन फसल हैं, जो की खरीफ मौसम में तिलहन के तहत अपना विशेष स्थान रखती हैं। इसका उपयोग तेल, खली एवं पत्तियों, तने के डंठल से रेशा निकालने में किया जाता है। इसकी खेती आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडू, कर्नाटक, उडीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा राजस्थान के शुष्क भागों में की जाती है। मध्य प्रदेश में भी पूर्व में कुछ जिलों में इसकी खेती छोटे स्तर पर की जाती रही है।
इसके बीज में 45 से 55 प्रतिशत तेल तथा 12-16 प्रतिशत प्रोटीन होती है। इसके तेल में प्रचुर मात्रा (93%) में रिसनोलिक नामक वसा अम्ल पाया जाता है, जिसके कारण इसका आद्यौगिक महत्त्व अधिक है। इसका तेल प्रमुख रूप से कीम, केश तेलों, श्रृंगार सौन्दर्य प्रसाधन, साबुन, कार्बन पेपर, प्रिटिंग इंक, मोम, वार्निश, मरहम, कृत्रिम रेजिन तथा नाइलोन रेशे के निर्माण में प्रयोग किया जाता है। पशु चिकित्सा में इसको जानवरों का कब्ज दूर करने से लेकर कई अन्य रोगों में प्रयोग किया जाता है। खेतों में भूमिगत कीट नियंत्रण हेतु विशेषकर दीमक एवं वाइट ग्रब के लिए इसकी खली रामबाण का काम करती है। जिले के किसान भाई अरंडी, केस्टर की खेती यदि करना चाहे तो नवाचार के रूप में कृषि विभाग से संपर्क कर इसकी खेती प्रारम्भ कर सकते हैं और कम लागत में एवं कम सिंचाई के संसाधनों के बावजूद उत्पादन ले कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है।
इसकी खेती के लिए सामान्यतः जल निकासयुक्त सभी प्रकार की भूमियाँ उपयुक्त होती हैं। जहाँ तक उन्नत किस्मों की बात हैं सामान्य किस्मों में टाइप 3, भाग्या, सौभाग्या, अरूणा, वरूणा, ज्योति, कांति प्रमुख है तथा संकर किस्मों में जीसीएच-4, जीसीएच-5, जीसीएच-6, जीसीएच-7, जीसीएच-8, जीसीएच-9, डीसीएच-32 एवं आरसीएचसी 1 है।
अरंडी, केस्टर की बुवाई के लिए जुलाई का महीना सबसे अच्छा माना जाता है। इस हेतु 7-8 किलोग्राम बीज दर सिंचित अवस्थाओं में तथा 10-12 किलोग्राम बीज दर असिन्चित अवस्थाओं में पर्याप्त रहती है। बीजों को उपचार कर 4-5 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए और पौधे से पौधे के बीच 30-45 सेमी दूरी और पंक्ति से पंक्ति के बीच 60-90 सेमी की दूरी रखनी चाहिए। इसकी अच्छी उपज के लिए विभिन्न क्षेत्रों में 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 30-40 किलोग्राम फास्फोरस साथ ही 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हैक्टर की आवश्यकता रहती है।
सिंचित दशाओं में नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश एवं सल्फर की पूरी मात्राओं को बुवाई के पहले ही कुंडो में मिला देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा दो महीने बाद सिंचाई के समय दे देनी चाहिए। उन स्थानों पर जहाँ फसल असिंचित दशाओं में उगाई जा रही हो तथा सिंचाई की समुचित व्यवस्था न हो वहाँ नाइट्रोजन की पूरी मात्रा बुवाई के पहले ही कुंडो में मिला देनी चाहिए। वर्षा काल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती हैं। बाद में एक माह के अंतराल पर हल्की सिंचाई करें। साथ ही आवश्यकता पडने पर निंदाई गुडाई कर खरपतवारों को निकल दें।
उन्नत कृषि विधियों को अपनाने पर सामान्य रूप से असिंचित क्षेत्रों में 8-10 क्विंटल तथा सिंचित क्षेत्रों में उन्नत किस्मों से 15-25 क्विंटल प्रति हेक्टर तक की उपज सरलता पूर्वक प्राप्त की जा सकती है। इस तरह जिले के किसान भाई अरंडी, केस्टर की खेती कर लाभ प्राप्त कर सकते है। जिले के किसान भाई अरंडी, केस्टर लगाने हेतु अधिक जानकारी के जिए जिला स्तर पर कृषि विभाग, आत्मा एवं कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया जा सकता है। साथ ही विकासखंड स्तर पर वरिष्ठ कृषि अधिकारी एवं कृषि विभाग के मैदानी अमले में कृषि विस्तार अधिकारी से संपर्क करें। (लेखक- कृषि विज्ञान केंद्र नीमच में प्रधान कृषि वैैैैैैज्ञानिक है)